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खुद से खुद की जंग

जैसे ही मै होटल में प्रवेश करने जा रहा था तभी एक लगभग १० वर्ष की लड़की (जो अपनी माँ के साथ होटल से बहार आ रही थी) दिखाई दी और मुझे कुछ घंटे पहले घटी घटना की याद दिला दी. मै उस बीती घटना को याद नही करना चाहता था इसीलिए मैंने अपना मोबाइल निकला और अपने एक दोस्त से बात करने लगा. बात करते-करते मै अपने कमरे में पहुच गया. मै कॉल करके डिनर का आर्डर किया और फ्रेश होने चला गया. कुछ ही देर में बेल बजी मै दरवाजा खोला तो वेटर डिनर के साथ खड़ा था. मैंने उससे अन्दर आने का इशारा किया. ओ अपने मोवेअबल टेबल (जिस पर मेरा डिनर सजा हुआ था) अन्दर लाया. उसके जाने के बाद मैंने डिनर किया और वॉलेट से १०० का नोट निकल कर उस वेटर के टेबल पर रखने ही वाला था की मेरा हाथ रुक गया और वो घटना जिसे मै भूलने की कोसिस कर रहा था फिर याद आ गई. मै क्यों किन्कर्ताबय्वविमुढ़ हो चूका था तभी मुझे दरवाजे की बेल सुनाई दी, मुझे पता था की वेटर ही होगा और न चाहते हुए भी मुझे वो नोट टेबल पे रख दिया “क्युकि मै इस दिखावे की दुनिया का दिखावे का मारा हु”. मेरे गेट खोलते ही वेटर अन्दर आया और टेबल लेकर जाते हुए एक पयार सा स्माइल के साथ सुबह रात्रि बोलते हुए चला गया. मै काफी थक चूका था इसीलिए मै सोने चला गया. पर मुझे नींद नही आ रही थी. बार बार दो सवाल मेरे दिमाग में घूम रहे थे, पहला मै चाहते हुए भी उस लड़की को पैसे क्यु नही दिया? और ना चाहते हुए भी मैंने वेटर को रुपया क्यु दे दिया?

आधा दिमाग तो रेल वाली घटना ख़राब कर चुकी थी और आधा इस वेटर वाली घटना ने. मै पूरी तरह बिना दिमाग का बिना नींद वाला विचारक बन चूका था.

बात कल की है जब मै पटना से अपने “भिक्षुक हटाओ अभियान” कि सुरुआत करने के बाद लौट रहा था. यह अभियान एक एनजीओ के तहत चलाया जा रहा था. इस अभियान में लोगो को भिक्षा न देने के लिए जागरूक किया जाता है. हमलोगों का मानना है की भिक्षुकों की शंख्या बढ़ने का मुख्य कारण उनको भिक्षा  मील जाना है. अगर हम भिक्षा देना बंद कर दे तो सायद भीख मांगना ही ख़त्म हो जायेगा.

अब मै घटना पे आता हु. यात्रा के सुरु होने के ५-६ घंटे बाद एक लड़की आई. उसने पूरी कोच को छोटे झाड़ू से बुहारा और हाथ फैला कर रुपया मांगने लगी. कुछ लोगो ने रूपये दिए कुछ लोगो ने नही. वह मेरे पास आई मै खिड़की के तरफ देखने लगा. कुछ देर तक मेरे पास हाथ फैला कर खड़ी थी मैंने एक बार उसके तरफ देखा, बड़ी मासूम ९-१० साल की लड़की थी जिसके चहरे से उसकी मज़बूरी और बेवसी झलक रही थी फिर भी मैंने चेहरा मोड़ लीया. मेरे दिल से आवाज आ रही थी की मुझे उससे कुछ रूपये दे देना चहिये, लेकिन मै बड़ी बेरुखी से उसे इगनोरे कर दिया क्योकि “मै भारत को भिक्षुक मुक्त बनाने का स्वप्नदर्शी जो देख रहा  हु”. और वह चली गई.

इन दो विपरीत घटनावाओ के बारे में सोचते सोचते मुझे कब नींद आ गई मुझे पता भी नही चला. सुबह मेरे मोबाइल के अलार्म से मेरी नींद खुली. जब मैंने मोबाइल देखा तो वो मुझे लखनऊ वाले भिक्षुक हटाओ अभियान की याद दिला रहा था और मै रात की साडी बाते भूल कर जल्दी जल्दी तैयार होने लगा.

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