माँ को थी बेटे की सफलता की आस, नही हुई निराश

  • Post author:
  • Post category:Story
  • Reading time:2 mins read
“पसीने की स्हायी से लिखे पन्ने कभी कोरे नहीं होते…
जो करते है मेहनत दर मेहनत, उनके सपने कभी अधूरे नहीं होते।”
मेहनत और लगन हो तो कुछ भी असंभव नहीं, कोई भी लक्ष्य ऐसा नहीं जिसे साधा नहीं जा सके। लक्ष्य मानव जीवन को जीवंत बनाये रखता है अन्यथा रोज़मर्रा की परेशानियों से जीवन बोझिल हो जाता है। कुछ पाने की आस और उसके लिए निरंतर प्रयास ही मानवीय कर्म है और यही ‘आस-प्रयास’ मानव जीवन में रोमांच बनाये रखता है।
आइए गवाह बनते है एक ऐसी कहानी का जिसमें एक नारी का त्याग है, ममत्व से सींचा ख्वाब है, आत्मसम्मान है तो दकियानूसी सोच भी है, जिम्मेदारी लेने व निभाने की, व्यक्तिगत, आर्थिक व सामाजिक दुश्वारियां है। परिवार ही बच्चों के जीवन की प्रथम पाठशाला होती है और माँ परिवार का आधार। माँ न सिर्फ अपने ममत्व बल्कि ‘आदतन त्याग’ से अपनी अगली पीढ़ी के विकास को सींचतीं है, यह परंपरा पितृसत्तात्मक समाज का एक काला सच भी है। नारियों को समर्पित व उनकी स्थिति को वर्णन करती हुई महान कवि फणीश्वरनाथ रेणु की निम्न पंक्तिया सटीक है:
“हाय अबला जीवन तेरी यही कहानी,
आँचल में दूध आंखों में पानी”
नारी जीवन को वर्णन करती  हुई उक्त पंक्तियों में जीवन का आधार, अमृत तुल्य माँ के दूध और नारी जीवन की व्यथा व्यक्त करती हुई आंसुओ की बात की गई है, साथ ही नारी को अबला भी कहा गया है। किन्तु हम भूल जाते है कि नारी का सिर्फ अबला रूप ही नहीं होता है, शक्ति स्वरूप दूर्गा, काली भी नारी के ही रूप है। जीवनदायिनी धरती पर नारी का जननी रूप सर्वश्रेष्ठ रूप है, क्योकि प्रकृति ने सांसारिक चक्र की प्रमुख रचना, मानव श्रृंखला को आगे बढ़ाने के लिए नारी को ही चुना है।
परिवार पृरुष और महिला दोनों के मिलन से बनता है, पति-पत्नी के रूप में दोनों मिलकर अपनी गृहस्थी चलाते है, खुशी-गम व जिम्मेदारियां बांटते है, यह परिवार की सर्वश्रेष्ठ आदर्श स्थिति है। इस पितृसत्तात्मक समाज के कुछ अपने दंभ है जो कायदे-कानून से परे है और वैसे भी जरूरी नहीं कि दुनिया मे हर इंसान इतना खुशनसीब हो ही कि उसे हर कुछ सही मिल ही जाए, जिसे ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ हिंदी फिल्म की बहुचर्चित ग़ज़ल की शुरुआती पंक्तियां में दर्शाया भी गया है:-
“कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता 
  कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता…”
रीता राय के जीवन व्रुत्त में पुत्र के रूप में विशाल तो मिला किन्तु पति का साथ न मिल पाया, बढ़ती पारिवारिक समस्याओं के कारण स्वाभिमानी रीता ने न सिर्फ अपने आत्मसम्मान को चुना बल्कि जीवन भर समाज के तानों-उलाहनों के साथ नाता जोड़ लिया। पति व ससुराल से अलग होना एक बहुत ही बोल्ड व बेबाक फैसला था। ऐसी स्थिति में रीता ने न सिर्फ हिम्मत बल्कि समझदारी दिखाते हुए एकल माँ की जिम्मेदारी निभाने का निर्णय लिया। रीता के इस फैसले में उनके माता-पिता ने भी समर्थन किया। उस वक़्त सामाजिक ढांचे में यह आसानी से स्वीकार्य भी नहीं था, किन्तु रीता ने तमाम अवधारणाओं को झुठलाते हुए अपने इस बेबाक फैसले पर कायम रही और आज जब विशाल का दाखिला आईआईटी में हो गया है तो उनके सारे फैसले, जिनपर लोग उंगलियां उठाते थे, वहीं आज उनकी प्रशंसा करते थक नहीं रहे है। एक ओर जहाँ इस सफलता से बिगड़े रिश्तों की कच्ची डोर में सहसा जान आती दिख रही है, वहीँ दूसरी ओर उनके पति व ससुराल वाले लोगो के रवैये भी नरम पड़ने लगे है। आज विशाल रुड़की के मैकेनिकल संकाय में अध्ययनरत है, यह सिर्फ विशाल या रीता के अकेले की कामयाबी नहीं बल्कि समाज के हर उस महिला की कामयाबी है जो आत्मविश्वास से कुछ करना, कुछ पाना, कुछ दिखाना चाहती है।
विशाल के बचपन की यादों में पिता का नामोनिशान नही है, क्योकि बचपन से ही उन्होंने नाना-नानी और मौसी को देखा। पति से अलगाव के कारण रीता ने विशाल को अपने मायके वाराणसी में रखा ताकि उसका लालन-पालन उचित परिवेश में हो सके। शिक्षित रीता को शिक्षा का महत्व पता थी इसलिए उन्होंने न सिर्फ विशाल की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया बल्कि अपनी नौकरी के साथ स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी शुरू कर दी। विशाल अपने नाना-नानी, मौसी के साथ बड़ा होने लगा। माँ के नौकरी के कारण अनुपस्थिति में नाना-नानी और मौसी ने मिलकर विशाल को माता-पिता दोनों का ही प्यार देने की कोशिश की। गुजरते वक़्त के साथ बड़ा होता विशाल समझदार और दृढ़प्रतिज्ञ होता गया।
किसी प्रकार तो दसवीं तक कि पढ़ाई हुई किन्तु उसके बाद क्या? यह यक्ष प्रश्न विशाल और उसकी माँ रीता दोनो के  सामने खड़ा था। ईश्वर सारे दरवाजे बंद नहीं करता, कोई एक दरवाजा जरूर खोलता है, असमंजस में फंसे विशाल व रीता के लिए मदद रूपी दरवाजे के रूप में ‘अभ्यानंद सुपर 30’ का साथ मिला। कहीं से मिली इस जानकारी में उन्हें अपनी उम्मीदे दिखी, बिगड़ता जीवन संवरता हुआ दिखा। सुपर 30 के प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन पत्र भरा, द्वि-स्तरीय प्रवेश परीक्षा भी उतीर्ण की और आखिरकार सुपर 30 में उसका चयन भी हो गया। परिवार ने टूटती उम्मीदों को एक मौके में तब्दील होने की खुशी मनाई, अब विशाल के पास एक मंच था जहाँ वो अपनी प्रतिभा और उस प्रतिभा को निखारने हेतु सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों की टीम के मार्गदर्शन से आगे का सफर कर सकता था। सुपर 30 में आकर विशाल का आत्मविश्वास बढ़ा, अब सिर्फ आईआईटी पास करने की नहीं बल्कि रैंक की बातें होने लगी।
आखिरकार आईआईटी का परिणाम भी आया, माँ की तपस्या व बेटे की मेहनत रंग लाई, और उसका चयन आईआईटी में हुआ। आज विशाल आईआईटी रुड़की के मैकेनिकल संकाय में अपनी ज़िंदगी संवारने में लगा है, उसकी आँखों में बेहतर भविष्य की चमक से माँ रीता भाव-विह्वल है। घर के खर्चो व विशाल की पढ़ाई के लिए शुरू नौकरी को करते हुए आज रीता को 16 साल हो चुके है। आज जब वो वापस पलटकर देखती है तो उन्हें सिर्फ इस बात की टीस है कि विशाल को बचपन में वक़्त नहीं दे पायी।
मेरे से बात करने के क्रम में उन्होंने अपना अनुभव साझा किया” हर महिला को स्वावलंबी, आत्मविस्वासी होना चाहिए और इसके लिए उनका शिक्षित होना आवश्यक है। हर माता-पिता को अपने बच्चों की शिक्षा में भेदभाव नहीं करना चाहिए। बेहतर शिक्षा लड़कियों को संबलता प्रदान करता है।” सुपर 30 के बारे में उन्हीने कहा” यह संस्था बच्चो के जीवन रोशन करने के साथ-साथ समाजिक एकीकरण का प्रतीक है। यह सुविधवंचित बच्चों के लिए मौका है की वो जीवन में कुछ करे और भविष्य में समाज के लिए भी कुछ करे।
“महिलाओं के लिए संदेश देते हुए उन्होंने कहा” कभी भी अपने आत्मसम्मान, स्वाभिमान से समझौता न करे,अपने हुनर को पहचाने, उस बेहतर करे और आत्मनिर्भर बनें।”
ज़िंदगी उसी के साथ खेलती है, जो सबसे अच्छे खिलाड़ी होते है, रीता ने अपनी हिम्मत, सूझ-बूझ और विशाल ने अपनी मेहनत व लगन से यह दिखाया कि वो बेहतर खिलाड़ी है। किन्तु खिलाड़ियों से बेहतर प्रदर्शन करवाने का श्रेय कोच को भी जाता है, विशाल की सफलता में कोच की भूमिका ‘सुपर 30’ ने सफलतापूर्वक निभायी। विशाल की प्रतिभा को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का साथ मिला, किन्तु भारत जैसे विकासशील देश में विशाल जैसे कितने असंख्य छात्र ऐसे है जिन्हें भी ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए। जब सुविधवंचित छात्रों को बुनियादी शिक्षा ही नहीं मिल पाती है तो उच्च शिक्षा तो और भी मुश्किल हैं, किंतु समाज में कुछ ऐसे भी व्यक्ति है जो ‘देश का कल’ सवांरने के लिए आज काम कर रहे है।
‘IMBLOGGER’ सलाम करता है पूर्व डीजीपी अभयानंद, शिक्षक पंकज, अरुण, रवि व सुपर-30 के टीम के सभी अन्य सदस्यों और ‘उर्मिला सिंह प्रतापधारी सिन्हा फाउंडेशन’ व इसके ट्रस्टी श्री ए. डी. सिंह को, जिन्होंने आगे बढ़कर इन सुविधवंचित बच्चों को ‘कल के भविष्य’ के रूप में सवांरने की सफल व सार्थक पहल की हैं। समाज को जरूरत है ऐसे लोगों की जो अन्य लोगों की मदद के लिए आगे आएं। इन कहानियों के माध्यम से हम सुविधवंचित छात्रों को ‘एक मौके’ के बारे में बताना चाहते है और सुविधायुक्त व सामर्थ्यवान लोगों से अपील करते है कि वो भी अपनी जिम्मेवारी को समझे व समाज के आधारस्तम्भ आम निर्धन जनों के लिए ऐसे  ‘मौके’ मुहैया करवाने का प्रयास करे।

Leave a Reply